मन में हैं दस-बीस…

सतरंगी भाव उमड़ते हैं, दौड़ते हैं, तेज़ दौड़ते हैं इतने तेज़ कि कुछ स्पष्ट नहीं रह पाता मानो ऊर्जा से चालित सिलबट्टे के कटोरे में चटनी पिस रही हो! हरा धनिया, पुदीना, टमाटर और नमक मिर्च के अलावा थोड़ी सी चीनी! सब घर्र-घर्र की आवाज़ के साथ मलियामेट!

शांत रहना दुनिया का सबसे कठिन काम है। सब कुछ आसान है पर मन को सोचने से रोकना तो दूर, गति कम करना भी मुश्किल है। सोचता हुआ मन खदकती कढ़ी सा रिंझता रहता है और निष्कर्ष भी ज़ायकेदार होता है। खौला पड़ने की तरह विचार भी गिरते-पड़ते रहते हैं।
मोटे तले की भारी कढ़ाई की तरह मन धीर-गंभीर हो तो भी या मोटी बुद्धि हो तो भी भाव तले में चिमटकर लगता नहीं है। ज़्यादातर मन पतले तले की कढ़ाई की तरह होता है जब भी कुछ पकाओ ठोड़ा-बहुत चिपक ही जाता है।

सोच पर काबू पाना ही कठिन है तो रोकना कितना ज़्यादा!!! अच्छे-बुरे, सही-ग़लत, अपने-पराए और न जाने कौन-कौन से विचार मन को हिलाए रहते हैं!

 

 

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One Response to “मन में हैं दस-बीस…”

  1. mehek Says:

    sahi ann ka bhagna kabhi rukta nahi

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